Tuesday, April 14, 2020

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्धपि वे आज भी इंडिया में टॉप पर है परंतु अपने अमेरिकी दोस्तों के मुकाबले  उनकी हैसियत थोड़ी कमजोर हुई है। बिजनेस साईकल में यह ऊंच नीच चलती रहती है। अनिल भाई को ही देखो ! 2005 में जब दोनों भाई फ़िल्मी अंदाज में बंटवारे पर उतर आये तो बड़े बूढ़ों ( दीपक पारेख , मुरली देवड़ा , रतन टाटा ) को बीच में आना पड़ा ! उस समय अनिल भाई को जितना हिस्सा मिला था उस मान से वे दुनिया में छटे नंबर के अमीर कहलाये थे। कट - टू वर्तमान - आज वे भारत के सबसे बड़े कर्जदाता हो गए है। इस कहानी में एक दिलचस्प बात भी है।  दोनों ही भाइयों को अकूत संपति के बाद भी वह जनसमर्थन नहीं मिला जैसा आम बोलचाल में ' टाटा -बिड़ला ' को मिला हुआ है ! किसी को भी ज्यादा खर्च करते हुए  या अपने पैसे पर इतराते हुए देखकर  लोग कह उठते है - टाटा बिड़ला का सपूत बन रहा है ! मतलब अमीर कोई है तो सिर्फ टाटा - बिड़ला ही है ! मुकेश या अंबानी हो जाना किसी की जुबान पर नहीं आता। एक और सुन्दर उपमा है - धन्ना सेठ ! मुकेश भाई के ऊपर यह भी सूट नहीं करती। शायद उनका व्यक्तित्व  उनके अमीर होते हुए भी अमीर नहीं दिखने की दुविधा में उलझा नजर आता है। बहरहाल नो डाउट मुकेश भाई अरबपति थे और रहेंगे भी। फिलहाल जिस हवा में वे पतंग उड़ा रहे है इस समय वह उनके इशारे पर ही बह रही है !! इसलिए टेंशन नी लेने का ! 

मेरी डायरी का एक पन्ना 


समय के साथ बदल जाना समय की भी मजबूरी है ।
मुझे कई लोगों से शिकायत है। कई लोगों को मुझसे शिकायत है। हर कोई मुझसे सहमत नहीं होता। होना भी नहीं चाहिए।  में भला कब हर किसी से राजी होता हु। इस विश्वव्यापी आपदा से मुझे फायदा हुआ है लेकिन में परपीड़क ( सैडिस्ट ) नहीं हु। इन इक्कीस दिनों में किताबों की संगत भरपूर मिली है।  कई अधपढी किताबे पूरी हो गई है। दो दिन में एक किताब का स्कोर चल रहा है। गर्व करने लायक किताबों का भंडार है मेरे पास । कुछ मित्रों की मदद से इ -बुक्स का काफी जमावड़ा हो गया है। मेरे  अमेजन किंडल पर क्लासिक किताबे भरी हुई है।  टीवी न्यूज़ देखना बरसों पहले बंद कर चूका हु। हाई पीच पर चीखते समाचार वाचक बहुत इर्रिटेटे करते है।  समझ नहीं आता लोग कैसे झेलते है। कभी कभी ऐसा लगता है जैसे कोई मदारी अपना मजमा जमा रहा है। वेब पोर्टल सी एन एन , बीबीसी , अलजज़ीरा , प्रिंट , वायर , क्विंट , स्क्रॉल - न्यूज़ के साथ व्यूज में भी बेहतर है। इंदौर के एक मित्र रोजाना अखबारों के इ एडिशन उपलब्ध करा रहे है।  सोशल डिस्टैन्सिंग तोड़ते लोगों को डंडे से दुरुस्त करते पुलिस के वीडियो एकबारगी मनोरंजन कर जाते है। तफरी करने वालो और काम से निकलने वालों के बीच अंतर जानने का पुलिस के पास भी तो  यंत्र नहीं है।
 इन दिनों फिल्मे भी बहुत देख रहा हु। अमेजन पर टीवी शो और डॉक्यूमेंट्री का खजाना है। यूट्यूब की तो कोई बराबरी कर ही नहीं सकता। पुण्य प्रसून , विनोद दुआ , संजय पुगलिया , ध्रुव राठी , आकाश बनर्जी , अखिलेश भार्गव जैसे लोग समय के साथ तालमेल बैठाने में बेहद मददगार साबित हो रहे है। इतना सब होते हुए भी कुछ लोगों से मिल बैठ बात करने का मन करता है। फोन कॉल और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग बढ़िया है लेकिन प्रत्यक्ष सामने होने का सुख नहीं , उसकी तुलना नहीं की जा सकती !
समय चाहे कितना भी खराब हो उसकी सबसे बड़ी कमजोरी उसका चलायमान होना है। बीत जाने के अलावा उसकी कोई नियति नहीं है। यही बात हमें राहत देती है। मुसीबते इससे पहले भी धरती पर आई थी। आती रहेंगी। बस जरुरत है सावधान , चौकन्ने और विवेकशील रहने की।
मनुष्य कुल मिला कर जीने और परस्पर प्यार करने के लिये ही जन्मा है और कोई भी उससे उसका यह हक नहीं छीन सकता।
( इस लेख का पहला और अंतिम वाक्य मेरा नहीं है। बीच के सारे विचार मेरे अपने है ) 


Tuesday, April 7, 2020

रघुराम राजन कहिन !

ताली थाली दीपोत्सव सफलता पूर्वक संपन्न हुआ। अब कठोर यथार्थ पर लौटने का समय है। पूर्व आर बी आई गवर्नर रघुराम राजन ने 14 अप्रैल के बाद आने वाली समस्याओ के बारे में आगाह करते हुए एक विस्तृत ब्लॉग पोस्ट लिखी है। इस ब्लॉग की कुछ महत्वपूर्ण बाते - वे लिखते है कि 2008 -09 का आर्थिक संकट वैश्विक था जिसने हमारी मांग को तगड़ा झटका दिया था।  लेकिन उस समय हमारे श्रमिक बेकार नहीं हुए थे , अधिकांश कम्पनियाँ पूर्व में बेहतर करती आ रही थी- उनका व्यवसाय कम हुआ लेकिन वे पटरी से नहीं उतरी , वित्तीय संस्थाए अपनी क्षमता का  उपयोग नहीं कर पा रही थी - लेकिन काम कर रही थी ! कुल मिलाकर वैश्विक तुलना के लिहाज से अर्थव्यवस्था साउंड थी। आज जब हम इस महामारी से लड़ रहे है तब आर्थिक परिदृश्य ठीक  उलट है !
राजन आगे लिखते है कि अब लॉक डाउन के बाद के प्रभावों से निपटने की योजना बनाने का समय है। उनका सुझाव है कि पी एम ओ के अधिकांश नौकरशाह जो काम की अधिकता से त्रस्त चल रहे है उन्हें कुछ दिनों के लिए आराम दे दिया जाना चाहिए। संपूर्ण विपक्ष में से ऐसे लोगों को एकत्र किया जाना चाहिए जो  2008 -09 का आर्थिक संकट नजदीक से देख चुके है। इसी समय यह भी ध्यान रखना जरुरी  है कि गरीब और नान सैलेरी वर्ग के लोग बगैर डायरेक्ट ट्रांसफर के  भी अपना जीवन यापन कर सके।  क्योंकि सिमित आर्थिक  संसाधनों के चलते इस मदद को ज्यादा लम्बे समय तक नहीं चलाया जा सकता है !  इस तथ्य की अवेहलना का परिणाम हम अभी प्रवासी मजदूरों के पलायन में देख चुके है।
थोड़े समय के लिए भारत को रेटिंग कम होने की चिंता छोड़ देना चाहिए।  अमेरिका यूरोप अपनी जी डी पी का दस प्रतिशत तक जरुरत मंदों पर खर्च कर रहे है। इससे उनकी रेटिंग पर कोई असर नहीं होता।   हम भी कर सकते है - भले ही हमारी रेटिंग कम हो जाए , भले ही निवेशकों का विश्वास डगमगा जाये , लेकिन अपने देश को पटरी पर लाने के लिए हमें ज्यादा खर्च करना ही होगा। यह जानते हुए भी कि इस वर्ष हमारा राजस्व निम्नतम धरातल पर होगा - हमें ऐसे कदम उठाने ही होंगे ! रिज़र्व बैंक ने सिस्टम में पर्याप्त तरलता बनाये रखी है। उसे छोटे और मझोले व्यवसायों को उदारता से पूंजी उपलब्ध कराना होगा।
अपनी बात को समाप्त करते हुए वे कहते है कि संकट में ही भारत में सुधार लागू हुए है। उम्मीद है, यह त्रासदी हमें यह देखने में मदद करेगी कि एक समाज के रूप में हम कितने कमजोर हुए है ,और हमारी राजनीति आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी सुधारों पर ध्यान केंद्रित करेगी , जिनकी हमें सख्त जरुरत है !

कोरोना की भविष्यवाणी करने वाली फिल्म !

फिल्मों के निर्माण में रचनात्मकता के साथ अर्थशास्त्र का भी सटीक संयोजन होना जरुरी है। किसी भी फिल्म के लिए जरुरी है कि वह किसी विषय को इस तरह प्रस्तुत करे ताकि दर्शक उससे   जुड़ाव महसूस कर सके , उसमे  दर्शाये कथानक को दर्शक अपने आसपास घटित होता देख सके। फिल्मकार अक्सर ऐसे विषयों का ही चुनाव करते है जिसमे उन्हें लगता है कि वे दर्शक को सिनेमाघर में खिंच लायेंगे  और अपना निवेश मय मुनाफे के वसूल लेंगे  । कुछ फिल्मकार अतीत के किस्सों और घटनाओ को अपनी फिल्मों की विषय वस्तु बनाने में उत्सुक रहे है तो कुछ इस तरह के कथानक को पसंद करते है जिसमे भविष्य की झलक हो !
स्टीवन एंड्रू सोदेन्बर्ग ऐसे अमेरिकन फिल्मकार रहे है जिन्होंने अपने आसपास घट रही घटनाओ पर कैमरा चलाया है और उसमे भविष्य के संकेतों को भी पिरोया है  । उनकी पहली फिल्म ' सेक्स , लाइज एंड वीडियो टेप ' (1989) ऐसी फिल्म थी जिसमे फिल्म इंडस्ट्री के स्याह चेहरे को उजागर किया गया था। काफी बाद में एकता कपूर ने इसमें देशी तड़का मारकर ' लव सेक्स और धोखा (2010) बनाई थी। सोदेन्बर्ग की एक दर्जन से अधिक उल्लेखनीय फिल्मे रही है जिनमे ' ओशेन इलेवन ' श्रंखला की तीनो फिल्मे , फेंज काफ्का ' और ' एरिन ब्रोकोविक ' की बायोपिक जैसी फिल्मे भी शामिल है। अपनी पहली  ही फिल्म से 'कैन्स फिल्म फेस्टिवल का '
पाम डी ओर ' एवं बाद में ' ट्रैफिक ' फिल्म के लिए अकादमी पुरूस्कार उनकी प्रतिभा का सही सम्मान करता है।
इस मौजूदा समय में सोदेन्बर्ग की एक  एक दशक पुरानी फिल्म को ढूंढ ढूंढ कर देखा जा रहा है। यह फिल्म है ' कान्टेजियन '  ! कोरोना वायरस के फैलाव की भविष्यवाणी करती इस फिल्म का आइडिया उन्हें 2002 से 2004 के मध्य फैले ' सार्स ' वायरस और 2009 में फैली ' फ्लू ' की महामारी से आया था। सोदेन्बर्ग की फिल्मों में अमूमन - व्यक्तिगत पहचान , बदला , नैतिकता और सेक्सुअलिटी केंद्र में रहते है।  उनकी फिल्मों की सिनेमोटोग्राफी भी स्मरणीय रही  है। 3  सितंबर 2011 को  प्रदर्शित कान्टेजियन की स्टार कास्ट भी जबरदस्त है। मैट डेमोन , केट विंसलेट , मारिओं कोटिलार्ड ,जुड लॉ , गायनेथ पेल्ट्रो , लारेन्स फिशबर्न , जेनिफर एहल आदि मुख्य कलाकार है। 106 मिनिट की अवधि वाली यह फिल्म पुरे समय दर्शक को मौत के आसन्न भय और अच्छी भली व्यवस्था के भरभरा कर गिर जाने का सटीक चित्रांकन करती है। इसे भविष्यवाणी ही माना जाना चाहिए कि कोरोना की  तरह इस फिल्म में आतंक मचाने वाला ' नोवेल वायरस ' हांगकांग से दुनिया में फैलता है और मनुष्य के साथ अर्थव्यवस्था को भी धराशाही कर देता है।  विदित हो कि हांगकांग चीन का ही एक हिस्सा है।
इस फिल्म की शूटिंग हांगकांग के अलावा लंदन , जिनेवा , सैनफ्रांसिस्को , और कैलिफ़ोर्निया में रियल लोकेशन पर हुई है।  दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इसके फिल्मांकन के लिए कही भी नकली सेट नहीं लगाए गए न ही भीड़ जुटाने के लिए एक्स्ट्रा कलाकारों की मदद ली गई। विश्व स्वास्थ संगठन ( डब्लू एच ओ ) ने इस फिल्म की पटकथा लिखने में रचनात्मक सहयोग प्रदान किया !
कोरोना आपदा के दौर में ' कान्टेजियन ' को इंटरनेट पर अवैध रूप से डाउनलोड कर देखने  की रफ़्तार में पांच हजार प्रतिशत का इजाफा हुआ है। यूट्यूब पर इसे तलाशने की कोशिश न करे। कान्टेजियन नाम से बहुत सारे वीडियो है लेकिन वे सब अनुपयोगी  है। अमेजन प्राइम पर इस फिल्म को एच डी फॉर्मेट में  हिंदी सब टाइटल के साथ देखा जा सकता है। ' कान्टेजियन ' को लेकर बनी उत्सुकता और कोरोना प्रकोप के चलते इस फिल्म के सभी अभिनेताओं ने 27 मार्च को एक वीडियो जारी करते हुए इस महामारी से बचने के लिए क्वारंटाइन , आइसोलेशन , हैंड वाश , नो हैंड शेक जैसे शब्दों को दोहराया है। आज साधारण बोलचाल में प्रयुक्त होने ये शब्द सबसे पहले इसी फिल्म में बोले गए थे !

Thursday, March 19, 2020

तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन अनजाना !


बॉलीवुड फिल्मों में दर्शाये प्रेम का विस्तार गली मोहल्ले के युवाओ या रेस्तरां के सुनसान कोने में बैठे जोड़े पर भलीभांति प्रतिबिंबित होते देखे जा सकते है। यद्धपि वे कुछ गलत नहीं कर रहे होते। मस्तिष्क में चल रही हलचल एड्रेनिल रसायन से प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है जिसका परिणाम अक्सर विपरीत सेक्स के आकर्षण पर जाकर ख़त्म होता है। भाषाई शब्दों में हम इस घटना को प्यार होना कहते है !
मनोवैज्ञानिक एल्ड्रिन रिच ने लिखा है ' प्रेम एक सम्मानीय संबंध है जिसमे दो लोग अधिकार पूर्वक प्रेम शब्द का उपयोग करते है। प्रेम दरअसल एक प्रक्रिया है जो बहुत ही कोमल , थोड़ी अधिकार ,थोड़ी भय ग्रस्त होते हुए उस सत्य से दोनों प्रेमियों का परिचय कराती है जिसमे वे होशपूर्वक एक दूसरे को एक नहीं अनेको  बार याद दिलाते है कि वे उससे कितना प्रेम करते है। इस प्रक्रिया में वे रोमांच के साथ एक दूसरे को खो देने की भयग्रंथि से भी ग्रसित रहते है। अक्सर कोई भी प्रेम में पड़ते समय एक कल्पना का सहारा लेता है कि वह अनजान बाहरी व्यक्ति उसके अंदर के खालीपन को भर देगा ! यधपि उसकी इस स्वनिर्मित आश्वस्ति के पीछे कोई ठोस आधार नहीं होता। यह उसका ही बनाया हुआ भ्रम होता। यह तब तक चलता है जब तक उस आगंतुक का वास्तविक जीवन में प्रवेश नहीं हो जाता। मनोवैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि अधिकांश प्रेम कहानिया हताशा की कहानियां होती। इस अवधारणा के समर्थन में तर्क देते हुए वे कहते है कि  जब आप प्रेम में पड़ते है तो अवचेतन में आप स्वीकार लेते है कि आप अब तक हताश थे ! आप किसी के इंतजार में थे , आपके जीवन में  किसी चीज की कमी थी। जो अब अचानक से पूर्ण  हो गई है। प्रेम दरअसल आपके खालीपन की गहराई से आपका साक्षात्कार करा देता है।
            प्रेम हो जाने के बाद उसकी नियति तय होने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। अमूमन दो ही विकल्प होते है जहाँ प्रेम पहुँचता है। एक , या तो जोड़े हमेशा के लिए बिना शर्त  सुखद अनुभवों को गढ़ते हुए जीवन को निखार लेते है।  दो , या तो  प्रेम चूक जाता है या फिर चयनकर्ता उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता और प्रेम काफूर हो जाता है। मोटे  तौर पर देखे तो प्रेमियों में उम्र का अंतर , समाज के रोड़े , भिन्न परिवेश , विचारों में मतभिन्नता , आर्थिक हालात इसके बिखरने की मूल वजह माना जाता है। यधपि इस तथ्य को कोई ध्यान नहीं देता कि प्रेम का न होना ही इस वियोग की मूल वजह है। शुरुआत में दैहिकता  , रूपसौंदर्य , लोकप्रियता ,बुद्धिमानी , वाकपटुता , संपन्नता या ऐसा ही कोई अन्य प्रभावी कारण रूमानी आकर्षण बनकर इस तरह मन मस्तिष्क पर छा जाता है जिसे संजीदा लोग भी
प्रेम समझने की भूल कर बैठते है। फिर एक निश्चित समय पर उस प्रभावी कारक की कलई मंद होने की आवश्यक प्रक्रिया आरंभ हो जाती है और वह तथाकथित प्रेम धीमे धीमे रिस जाता है। कभी किसी एक का तो कभी एक साथ दोनों ही का !
यहाँ यह भी विचारणीय है कि जो लोग अतीत में  प्रेम की मिसाल बन चुके है उन जैसा हो जाने की कामना करना भी प्रेम के संविधान में  निषेध माना गया है। प्रेम के आरंभ में किसी प्रयोजन का होना- प्रेम न होना ही माना जाएगा। कोई भी प्रयोजन फिर वह भौतिक हो चाहे मानसिक एक समय के बाद हासिल हो ही जाता है। फिर प्रेम करने की गुंजाइश भी उसके साथ ही ख़त्म हो जाती है। लैला मजनू हो जाना , शिरी फरहाद हो जाना या अमृता इमरोज हो जाना किसी तपस्या से कम नहीं है। यह सार्वभौम सत्य गहरे उतारना जरुरी है।
दस बारह वर्ष पूर्व पटना के उम्रदराज प्रोफेसर और उनकी शिष्या के प्रेम प्रसंग को लोग आज तक भूले नहीं है। उनके इस संबंध और  प्रोफेसर की पत्नी द्वारा शिष्या की सरेआम पिटाई को देश के एक प्रतिष्ठित न्यूज़ चैनल ने इस प्रमुखता से सनसनीखेज बना दिया था कि गुरु - शिष्या की जोड़ी शाम होने से पहले सेलेब्रिटी हो गई थी। टीवी चैनल ने ही प्रोफेसर को ' लवगुरु ' की उपाधि से नवाज दिया जो उनके साथ अब तक चिपकी हुई है। प्रोफेसर की नौकरी गई और आर्थिक हालात बदतर होने के बाद अब खबर है कि यह जोड़ा अलग हो चूका है। शिष्या वेस्ट इंडीज़ के किसी मानसिक अस्पताल में अपने अतीत की दुस्साहसिकता पर प्रायश्चित कर रही है। गुजरते समय और धुंधलाती प्रसिद्धि के साथ गुरु शिष्या के तथाकथित प्रेम की परते भी उधड़ गई !
            प्रेम सिर्फ प्रेम होता है जो हर हाल में साथ खड़े होकर अपना संपूर्ण न्योछावर इस शर्त पर करता है कि उसकी( प्रेमी की ) निजता पर कोई आंच नहीं आती। किसी उद्देश्य के लिए किया हुआ प्रेम कभी प्रेम हो ही नहीं सकता। न ही उसके होने का ढिंढोरा पीटने की आवश्यकता होती है। प्रेमियों के लिए बिना वैचारिकता , बिना संवेदनशीलता और बिना विवेक के अनदेखे रास्तों पर चल पड़ना प्रायः दुखद ही रहा है।
बुद्ध , प्लेटो , बर्टेंड रसेल ,  सात्र ,सिमोन द बुवा जैसे कई शताब्दियों और पीढ़ियों पर अपने प्रभाव छोड़ने वाले विचारको ने रोमांटिक प्रेम के  आधुनिक आदर्शो  को कैसे आकार दिया और कैसे इसकी मौलिक खामियों को आदर्श के अनुरूप दुरुस्त करने का मार्ग सुझाया है - की समझ  हरेक काल में प्रासंगिक है। कम से कम प्रेम के रास्ते पर चल पड़े और चलने का मन बना रहे लोगों के लिए तो बेहद जरुरी है !  

Monday, March 16, 2020

कोरोना के सामने बेबस जेम्स बांड !

कोरोना का आतंक धीमे धीमे दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले रहा है। दुनिया के प्रमुख स्टॉक मार्केट अनिश्चित भविष्य की आशंका में लगातार लड़खड़ा रहे है। भारत में ही एक दिन में निवेशकों के सात लाख करोड़ रूपये स्वाह हो चुके है। चीन में जहाँ से इस वायरस ने अपना मौत का सफर आरंभ किया है , अर्थव्यवस्था डगमगा गई है। अमेरिका के बाद सर्वाधिक सिनेमा हाल वाले इस देश में आधे सिनेमा हाल ( तकरीबन बीस हजार ) सुरक्षात्मक कारणों से बंद कर दिए गए है। तठस्थ मीडिया संस्थान बीबीसी का मानना है कि इस शुरूआती हड़कंप से ही चाइना बॉक्स ऑफिस को पांच अरब डॉलर का नुकसान हो चूका है।
 सिने प्रेमियों के लिए दूसरी बुरी खबर ब्रिटेन से आई है।  जेम्स बांड सीरीज की पच्चीसवी फिल्म ' नो टाइम टू डाई ' का रॉयल अल्बर्ट हॉल लंदन में होने वाला 31 मार्च का  वर्ल्ड प्रीमियर नवंवर तक के लिए टाल दिया गया है। यह फिल्म डेनियल क्रैग की बतौर जेम्स बांड आखरी फिल्म है।  इसके बाद कोई नया अभिनेता जेम्स के रूप में सामने आएगा। 3 अप्रैल को यह फिल्म पूरी दुनिया में प्रदर्शित होने वाली थी परंतु कोरोना के आतंक के चलते फ़िलहाल इसे सात  माह के लिए टाल दिया गया है।  गौरतलब है कि फ़िलहाल ब्रिटिश सरकार ने किसी भी तरह के  सार्वजनिक आयोजन पर कोई रोक नहीं लगाईं है।  फिल्म की रिलीज़ को आगे बढ़ाने का निर्णय निर्माता कंपनी ने अपने विवेक से लिया है। यधपि फ्रांस सरकार ने ऐसे किसी भी आयोजन पर रोक लगा दी है जहाँ पांच हजार लोगों के इकट्ठे होने की संभावना हो सकती है।  स्विट्ज़रलैंड ने इस सीमा को एक हजार पर सीमित कर दिया है। बांड प्रेमियों को इस फिल्म का बेसब्री से इंतजार था।  बांड श्रंखला की आखरी फिल्म 'स्पेक्टर  ' 2015 में आई थी जिसने वैश्विक बॉक्स ऑफिस पर भारतीय मुद्रा में  सत्तरअरब का व्यवसाय किया था। महज सौ करोड़ के कलेक्शन पर इतरा जाने वाले बॉलीवुड के लिए यह एक ऐसा आंकड़ा  है जिसे छूने की वे कल्पना भी  नहीं कर सकते ! ' नो टाइम टू डाई ' की रिलीज़ का आगे बढ़ना साधारण घटना नहीं मानी जा सकती। 250 मिलियन डॉलर के भीमकाय  बजट वाली  यह फिल्म अन्य स्टूडियोज को भी बाध्य करेगी कि अनिश्चितता और भय के माहौल में वे अपनी फिल्मों को प्रदर्शित करने का  निर्णय सोंच विचार कर ले ! इस फिल्म के ऑफिशियल  ट्रेलर को अकेले यू ट्यूब पर ही ढेड़ करोड़ लोग देख चुके है वही इसके टाइटल ट्रेक को पचास लाख से ज्यादा लोग सुन  चुके है। इस टाइटल ट्रेक को गाने वाली गायिका बिली एलीश महज उन्नीस वर्ष की है।   भारतीय दर्शकों के लिए डेनियल क्रैग की फीस जान लेना भी जरुरी है। 2016 में उन्हें जब यह फिल्म ऑफर हुई थी तब निर्माता कंपनी ने उन्हें एक करोड़ डॉलर की पेशकश की थी परंतु बाद में उसे बढ़ाकर ढेड़ करोड़ डॉलर किया गया ! डेनियल क्रैग की बतौर जेम्स बांड यह पांचवी फिल्म है।
जेम्स बांड श्रंखला की फिल्मे बनाने का सर्वाधिकार इयोन प्रोडक्शन के पास है। 2016 में जब इस फिल्म की परिकल्पना की गई थी तब सबसे पहले डेनी बोएल ( स्लम डॉग मिलेनियर ) को निर्देशन का दायित्व सौंपा गया था। परंतु निर्माता कंपनी से उनकी पटरी नहीं बैठी और उन्होंने फिल्म छोड़ दी। कुछ समय के लिए क्रिस्टोफर नोलन का नाम भी चला अंततः कार्ल जोजी फुकुनगा ने निर्देशन की कमान संभाली। फुकुनगा पहले अमेरिकन है जिन्होंने बांड सीरीज की किसी फिल्म को निर्देशित किया है। इसके पहले यह गौरव सिर्फ ब्रिटिश डायरेक्टर को ही हासिल था।
 हवा में तैरती मौत का भय न सिर्फ फिल्मों के प्रदर्शन पर असर डाल रहा है बल्कि उनके दूसरे महत्वपूर्ण कामकाज पर भी असर कर रहा है। पिछले हफ्ते सोनी पिक्चर एंटरटेनमेंट ने अपने लंदन पेरिस और पोलैंड के ऑफिस बंद  कर दिए।  डिज्नी इस हफ्ते अपनी वीडियो स्ट्रीमिंग सर्विस की ब्रिटैन में शुभारंभ पर एक भव्य आयोजन करने जा रहा था , जिसे निरस्त कर दिया गया है। कोरोना के आतंक के चलते ' नो टाइम टू डाई ' के निर्माता को रिलीज़ डेट नवंबर तक धकेलना महंगा पड़ा है। इस फिल्म की पब्लिसिटी और प्रमोशन के लिए अब तक 30 मिलियन डॉलर खर्च किये जा चुके है जो फिलवक्त निरर्थक हो गए है।

Friday, September 13, 2019

आर्थिक मंदी और सिनेमा !

यह सिर्फ संयोग है या किसी अनहोनी के संकेत कि भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी की खबरे सितंबर माह में  हवा से भी तेज चलने लगी है। नब्बे बरस पहले ( 4 सितंबर 1929 ) वैश्विक मंदी की शुरुआत अमेरिका से ही हुई थी। इसका पहला लक्षण शेयर बाजार के बुरी तरह धराशायी होने के रूप में सामने आया था। अगले क्रम में बैंको को  ताश के पत्तों की तरह बिखरते देखा गया। इसीके साथ आम जनता की क्रय शक्ति ख़त्म हो गईऔर भरपूर उत्पादन का ढेर खड़ा हो गया लेकिन ग्राहक बाजार से नदारद थे । परिणाम स्वरुप बड़े पैमाने पर लोगों को नौकरियों से निकाला जाने लगा।  इस मंदी को ' ग्रेट डिप्रेशन ' का नाम दिया गया। मंदी का पहला शिकार उच्च वर्ग हुआ बाद में मध्यम वर्ग की बारी आई और अंत में निम्न वर्ग और किसान  इसकी चपेट में आये।
अगले पंद्रह साल चलने वाली त्रासदी की यह शुरुआत थी जो पच्चीस प्रतिशत अमरीकियों को बेरोजगार बनाने वाली थी। रातों रात सड़क पर आये संपन्न वर्ग को अपमान के साथ जीवित रहना सीखना था। लेकिन  इस काले असहनीय अध्याय का एक उजला पक्ष भी सामने आने वाला था। एक बड़ी आबादी के लिए  वर्तमान की कठोर वास्तविकता से क्षणिक छुटकारा पाने  के लिए सिनेमा एकमात्र विकल्प बचा था। संयोग से यह घटना  हॉलीवुड के  ' गोल्डन ऐज ' से गुजरने के दौरान हुई थी  जिसकी शुरुआत 1915 मे हो चुकी थी।
' ग्रेट डिप्रेशन '  के  दौरान अगर किसी को फायदा हुआ तो सिर्फ फिल्मों और उससे जुड़े लोगों को। बेकारी से जूझते लोगों के पास थिएटर का रुख करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। टिकिट दरे न्यूनतम हुआ करती थी। परंतु  यह भी आम आदमी को भारी पड़ती थी।  सिर्फ एक ' निकल ' ( एक डॉलर का बीसवाँ भाग ) में अगर दर्शक अपने वर्तमान से दूर  तीन घंटे हँसते मुस्कुराते गुजार सके इससे बेहतर कुछ हो नहीं सकता था। ऐतिहासिक तथ्य बताते है कि इन वर्षों में औसतन  6 करोड़  अमरीकी हर हफ्ते सिनेमा देखने जाया करते थे जबकि उस समय अमेरिका की जनसँख्या 9 करोड़ हुआ करती थी। मंदी के  पहले पांच वर्षों में अर्थव्यवस्था पचास प्रतिशत सिकुड़ चुकी थी फलस्वरूप 690 बैंक बंद हो गए और हजारों कंपनिया दिवालिया हो गई।
लेकिन हॉलीवुड इस विपरीत परिस्तिथि में भी फलता फूलता रहा। यधपि मंदी का असर बड़े स्टूडियो पर भी हुआ और उनका मुनाफा चौथाई रह गया। बड़े नामों में ट्वेंटीथ सेंचुरी फॉक्स, एमजीएम , वार्नर ब्रदर , पैरामाउंट , वाल्ट डिज्नी जैसे स्टूडियो ही इस मंदी में टिके रहे अन्यथा बंद होने वाले स्टूडियो की संख्या इससे कही अधिक थी। चलचित्रो के संचालकों ने अपने यहाँ भीड़ बनाये रखने के लिए नए तरीके ईजाद कर लिए थे। एक बड़ी फिल्म के साथ एक शार्ट फिल्म बोनस के रूप में दिखाई जाती थी ,  एक टिकिट को दो बार उपयोग किया जा सकता था , या फिल्म को ऐसी जगह रोक दिया जाता था जहाँ से दर्शक की उत्सुकता उफान पर आ चुकी हो , शेष हिस्सा देखने के लिए उसे अगले हफ्ते आना जरुरी हो जाता था।  इस तरह के प्रयोग ' बी- ग्रेड ' फिल्मों या अनजान अभिनेताओं अभिनेत्रियों की फिल्मों के साथ अक्सर किये जाते थे।
  इस समय तक फिल्मों की श्रेणियाँ अस्तित्व में नहीं आई थी। लेकिन इस बारे में विचार बनना आरंभ हो गए थे  अधिकांश फिल्मे कॉमेडी , गैंगस्टर , डाकू  मारधाड़ , म्यूजिकल , हॉरर , थ्रिलर जैसे विषयों पर आधारित थी। इसी दौर में अधिकांश फिल्म निर्माता ' साइलेंट फिल्मों ' से सवाक फिल्मों की और रुख करते नजर आ रहे थे। यहाँ भी विडंबना हो रही थी।  साइलेंट फिल्मों में सितारा हैसियत पा चुके अभिनेता ' बोलती ' फिल्मों में खुद को एडजस्ट नहीं कर पा रहे थे। बदलती टेक्नोलॉजी कई लोगों को अकारण बेरोजगार बना रही थी तो कइयों को अवसर दे रही थी। चार्ली चैप्लिन की व्यवस्था और मशीन पर तंज करती कॉमेडी ' मॉडर्न टाइम ' इस अंधियारे समय की वजह से ही संभव हुई। वाल्ट डिज्नी की सफलता की शुरुआत भी लगभग इस समय हुई।
उनकी कार्टून फिल्म ' द थ्री लिटिल पिग ' और ' विज़ार्ड ऑफ़ ओज़ ' ने अमरीकियों को जो छूट गया उसे भुला कर नई शुरुआत करने करने के लिए प्रेरित किया।  ' विज़ार्ड ऑफ़ ओज़ ' का गीत ' हु इज अफ्रेड ऑफ़ द बिग बेड वुल्फ '  लोकप्रिय होकर देशभर में डूबते आत्मविश्वास को संजोये रखने में सहायता  कर रहा था।

आर्थिक विपन्नता से जूझ रहा जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा  सिनेमा के परदे पर चुनचुनाती रौशनी में जीवन के मायने तलाश रहा था। सिनेमा न सिर्फ पलायन की वजह बना वरन नई राहे तलाशने में  भी मदद कर  रहा था। फिल्मों में उन चीजों पर ज्यादा फोकस किया जा रहा था जो लोगों से छूट गई थी या जिसे पाने की कल्पना वे कर रहे थे। ग्रेट डिप्रेशन के दर्शक इस तरह फिल्मों से खुद को जोड़कर देख रहे थे।
इस मंदी से निकलने में अमरीका को पच्चीस बरस लगे। ध्वस्त शेयर बाजार और बैंक दूसरे विश्व युद्ध के बाद ही  संभल पाये। पहले विश्व युद्ध से आरंभ हुआ हॉलीवुड का गोल्डन एरा  साठ के दशक तक चला। इस कालावधि में हॉलीवुड मे  अनगिनत ' क्लासिक ' रचे गए  , दर्जनों अभिनेताओं को अपनी प्रतिभा से ' लीजेंड ' बनने  का अवसर मिला । मानवीय गलतियों से आई आर्थिक विपन्नता ने भले ही एक पीढ़ी का जीवन नारकीय बना दिया हो परंतु उसी अवधि में कालातीत साहित्य और सिनेमा भी रचा गया । बीसवीं सदी  के कई विरोधाभासो में ' ग्रेट डिप्रेशन और सिनेमा ' शीर्ष पर रहेगा।   

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

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